मसला सिर्फ़ हाजत का नहीं गुस्ल का भी है. हम रोज़ सुबह उठते हैं. दांत साफ़ करते हैं, फ़ारिग होते हैं और फिर नहा लेते हैं.
लैंकेस्टर यूनिवर्सिटी की समाजशास्त्री एलिज़ाबेथ शोव कहती हैं कि पश्चिमी सभ्यता में सुबह जल्दी नहाने का रिवाज है.
इसके
लिए वो विश्व युद्ध के बाद विज्ञापन में आए उछाल को ज़िम्मेदार बताती हैं.
ज़िम्बाबवे में लाइफ़बॉय साबुन और अमरीका में आइवरी साबुन का जमकर प्रचार
किया गया. यही वजह थी कि साबुनों के विज्ञापन की वजह से रेडियो और टीवी पर
आने वाले सीरियलों को सोप ओपेरा कहा जाता था. क्योंकि इनके प्रायोजक साबुन
निर्माता होते थे.
आज चेहरे की सफ़ाई के लिए फेस वॉश हैं, तो शरीर के बाक़ी हिस्सों के लिए बॉडी वॉश भी आ गए हैं. लेकिन, ये चलन हालिया है.
इसकी वजह ये थी कि लोग बार-बार नहाने लगे हैं.
बारबरा शोव बताती हैं कि ब्रिटेन में दो पीढ़ी पहले ही लोग हफ़्ते में केवल दो बार नहाते थे.
पहले पानी रोज़ाना नहीं आता था. पानी की किल्लत से ऐसी आदत थी. पानी की नियमित सप्लाई होने लगी, तो रोज़ का नहाना-धोना होने लगा.
वैसे रोज़ नहाने की आदत को पानी की उपलब्धता से जोड़ना ठीक नहीं. पानी
की किल्लत वाले देश जैसे मलावी में भी भले ही आधी बाल्टी पानी से स्नान हो,
मगर लोग दिन भर में दो से तीन बार नहा लेते हैं. यही आदत घाना, फिलीपींस, कोलंबिया और ऑस्ट्रेलिया के लोगों में भी देखी जाती है. हालांकि हर बार
नहाते वक़्त वो बाल भी धोएं, ये ज़रूरी नहीं होता. मज़े की बात ये है कि गर्म मौसम ही नहीं, ब्राज़ील में तो लोग सर्दियों के दिनों में भी कई बार
नहाते हैं.
आज रोज़ाना सुबह नहाने की आदत, हमारे कामकाजी जीवन की वजह
से है. लोग सुबह काम पर जाने से पहले ख़ुद को तैयार करते हैं, क्योंकि उन्हें दूसरों की नज़र में गंदा दिखना ठीक नहीं लगता. ये ग़ैर-पेशेवराना
माना जाएगा.
सवाल ये उठता है कि क्या रोज़ नहाना सेहत के लिए भी ठीक है?
इसका
जवाब है नहीं. क्योंकि गर्म पानी से बार-बार नहाने से आप की त्वचा और बाल रूखे हो जाते हैं. इसीलिए बहुत सी महिलाएं नहाएं भले रोज़, मगर अपने बाल
हफ़्ते में दो या तीन दिन ही धोती हैं.
कुछ लोगों का कहना है कि नहा
लेने से ताज़गी आ जाती है. लेकिन, बेहतर ये हो कि सोने से पहले नहाया जाए.
इससे बदन आराम की मुद्रा में आ जाता है.
वैसे भी साफ़-सफ़ाई और नहाना-धोना हर संस्कृति और इलाक़े के हिसाब से बदलने वाली आदत है.
हो
सकता है कि ख़ुद को इको-फ्रैंडली बताने के लिए पश्चिमी देशों के लोग भविष्य में ये एलान कर दें कि वो तो हफ़्ते में एक बार ही नहाते हैं, ताकि
पानी बर्बाद न हो.
बाथरूम की आदतें, हमारी सांस्कृतिक तरबीयत का हिस्सा होती हैं. बचपन से हमें क्या सिखाया-पढ़ाया जाता है, ये आदतें उसी
पर निर्भर करती हैं.
ये लेख बीबीसी की अजीब-ओ-ग़रीब पश्चिमी देश
सिरीज़ का हिस्सा है. 2010 में ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी की एक टीम ने कहा था कि मनोविज्ञान के बहुत से रिसर्च पश्चिमी देशों पर आधारित हैं. हम
इनके आधार पर ये समझ बैठते हैं कि यही दुनिया के लिए मिसाल हैं.
जबकि
पश्चिमी देशों के मुक़ाबले बाक़ी दुनिया की आदतें और विचार अलग हैं. कई
मामलों में पश्चिमी देशों के लोगों की आदतें बहुत अजीब होती हैं. इसे ही आज
मानक मानना ठीक नहीं होगा.
तमाम संस्कृतियों की सोच और बर्ताव में
फ़र्क़ होता है. ये फ़र्क़ खान-पान से लेकर नहाने-धोने और शौच की आदतों तक में साफ़ नज़र आता है. इसीलिए, रोज़मर्रा की किसी भी आदत को मानक मानना ठीक नहीं है.
लेकिन, एक दौर ऐसा भी था, जब लोग नहाने के इस नियम का
शिद्दत से पालन नहीं करते थे. वहीं, भारत समेत बहुत से देशों में उकड़ूं
बैठ कर हल्के होने का चलन भी है.
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